राजेश भंडारी नीमच

नीमच- 
 देश विदेश में विख्यात ज्योतिर्मठ अवान्तर भानपुरा पीठ पर शंकराचार्य जयंती के पर्व पर स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ को दण्ड धारण एवं अभिषेक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री ज्ञानानन्दजी तीर्थ ने उन्हें भानपुरा पीठ का युवाचार्य मनोनीत किया। तत्पष्चात् नगर के प्रमुख मार्गों से षोभायात्रा निकाली गई जो यशवंतराव होल्कर छत्री पहुंची। कार्यक्रम में दण्डी सन्यासी एवं समाज के गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।  इस अवसर पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री ज्ञानानंदजी तीर्थ ने आषीर्वचन प्रदान करते हुए कहा कि संन्यासी वही बनते हैं, जो भाग्यशाली होते हैं। सनातन धर्म की मान्यताओं को सुरक्षित रखें। संन्यास सबके लिए नहीं है। संन्यासी संस्कारों से वही बनते हैं, जो बड़े भाग्यशाली होते हैं। संन्यास पवित्र शब्द है। आज ऐसे संन्यासी की आवश्यकता है, जो सनातन धर्म का विधिवत पालन कर रक्षा कर सकें। संन्यास नारायण का स्वरूप है। धरा पर धर्म की क्षति हुई, तब-तब भगवान का अवतरण हुआ। सारे संन्यासी गुरुतुल्य हैं। संन्यासी संसार को देने के लिए तत्पर रहता है और परिपूर्ण रहता है। याचनाओं के अनुसार इच्छाओं की तृप्ति होती है। माता-पिता और देश के प्रति जिस व्यक्ति का समर्पण होता है निःसंदेह वह परमात्मा का स्वरूप होता है।
इस अवसर पर स्वामी कृष्णानंदजी महाराज ने कहा कि जिनका स्वरूप अप्रकट था, आज संन्यासी के रूप में हमारे बीच प्रकट हुआ है। ऐसे योग कभी-कभी आते हैं, जो तपते-तपते संन्यासी बन जाते हैं। ऐसी विराट भारतीय परंपराओं में प्रणाम करता हूं। विश्व पटल पर ज्योतिर्मठ अवान्तर भानपुरा पीठ का नाम चमकता रहे और रेवा की पावन धरा अविरल निरंतर बहती रहे, ऐसी मेरी परमपिता परमेश्वर से मनोकामना है।

पण्डाघाट पर पं.गोपालजी शास्त्री, पं.ललित शास्त्री, पं.श्रीधर शास्त्री विद्वान पंडितों, पुरोहितों, ब्रह्मचारियों के शंखनाद के उच्च स्वर में मंत्रोच्चारण के बीच जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी ज्ञानानंदजी तीर्थ ने स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ को संन्यास की दीक्षा देते हुए कमंडल, भिक्षा पात्र, गेरुआ वस्त्र, मंत्र दीक्षा देकर दंड धारण कराया। इससे पूर्व मुंडन, पिण्डदान, पंचगव्य अभिषेक एवं स्नान करवाया गया। तत्पश्चात मुक्ति, प्राण कथा सुनी, गणेश पूजन, ब्रिजा होम पिंड दान आदि कर संन्यासी बनने की प्रक्रियाओं को पूरा किया गया। तत्पश्चात सायं 4 बजे ज्योर्तिमठ से शोभायात्रा प्रारंभ हुई, जो नगर के प्रमुख मार्गों से होती हुई यशवंतराव होल्कर छत्री पर पहुंची। सुसज्जित खुली जीप में आद्य शंकराचार्य की सुन्दर तस्वीर रखी गई थी। मार्ग में जगह-जगह स्वागत द्वार लगाए गए। नगर के ब्राम्हण समाज, स्वर्णकार समाज, तम्बोली समाज, सेन समाज, मुस्लिम समाज, दाउदी बोहरा समाज ने शोभायात्रा का भावभीना स्वागत कर स्वामीजी का आशीर्वाद लिया। मठ में सभी को रूद्राक्ष वितरण एवं भण्डारा प्रसादी का आयोजन किया गया। 

समारोह में ये रहे मौजूद

स्वामी कृष्णानंद, डॉ.सुधीर तिवारी (लुधियाना), पं.घनश्याम तिवारी, कैलाश वैद्य, ठा.भीमसिंह चन्द्रावत, ठा.अर्जुनसिंह चन्द्रावत, यशवंत दुबे, ब्राम्हण समाज अध्यक्ष श्रीनाथ उपाध्याय, नरेन्द्र तिवारी, प्रमोद गौतम रामगजमण्डी, सुरेश कनेरिया बकानी, श्रीराम शर्मा, सौरभ शर्मा झालावाड, रामेश्वर धाकड हमीरगढ, देवेन्द्र तिवारी, तुषार जोषी, संजय तिवारी, दिनेश गुप्ता, बद्री भारद्वाज, प्रहलाद दुबे, कपिल तिवारी, मयंक चन्देल, हेमन्त गुर्जर, बद्री गुर्जर सहित सहित दूरदराज से आए काफी संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहे।

वरूणेन्द्र से स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ बनने का सफर

स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ का जन्म कार्तिक शुक्ल 5 संवत् 2036 दिनांक 25 अक्टूबर 1979 को उत्तरप्रदेश के कन्धौली ग्राम में हुआ था। बाल्यकाल में ही उनमें वैराग की सोच जागृत होने लगी थी और घर से विलग रहने लगे थे। युवावस्था में एमएससी (केमेस्ट्री), बी.एड., एल.एल.बी., राजर्षि टण्डन ओपन यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएषन डिप्लोमा जर्नलिज्म एण्ड मास कम्युनिकेषन के साथ साथ दयानंद युनिवर्सिटी से योग में डिप्लोमा एवं प्रायमरी एसटीसी आदि उपाधियां प्राप्त कीं। झांसी जिले से अण्डर 14 फुटबॉल टीम में रहे। कुछ समय दैनिक जागरण में तहसील सम्पादक के पद पर सेवाएं दीं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओ में योग और व्यायाम सिखाने लगे। बाद में शासकीय शिक्षक रहे। वैराग्य की भावना प्रबल होती तो चित्रकूट चले जाते। वर्ष 1996-97 में आप स्वामी ज्ञानानंदजी तीर्थ के सम्पर्क में आए और वैराग्य की ओर धीरे-धीरे आगे बढते गए। जिसकी परिणति शंकराचार्य जयंती पर्व पर उनकी दण्ड दीक्षा से हुई। वरूणेन्द्र को ब्रह्मचर्य से यति दंड संन्यास आश्रम में प्रवेश पर नया नाम स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ मिला। 

कैसे बनते हैं दण्डी संन्यासी

संन्यास जीवन में प्रवेश करने के लिए कठिन तप से गुजरना पड़ता है। गिने-चुने संन्यासियों को ही कठिन परीक्षा के बाद दंड धारण करने का अधिकार मिलता है. आजन्म ब्रह्मचारी ही दंडी संन्यासी बन सकते हैं. उन्हें कई कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है, मसलन जिंदगी भर भूमि पर सोना, भिक्षा मांगकर ही भिक्षा करना और अनसिले वस्त्र पहनना। जीव को शिव बनाने की यह प्रक्रिया पांच चरणों में पूर्ण होती है। इसमें मनुष्य की वेशभूषा और नाम के साथ सब कुछ बदल जाता है। आध्यात्मिक शब्दों में कहे तो यह क्रम मनुष्य के कायाकल्प जैसा है। मान्यता है कि इसके बाद व्यक्ति शिव स्वरूप हो जाता है। दीक्षा के दौरान शिष्य को स्वयं के साथ अपने परिजन का तर्पण तक करना पड़ता है। पिंडदान करने के बाद उसका संन्यास जीवन में दूसरा जन्म होता है। इसके बाद सांसारिक जीवन से उसका कोई संबंध नहीं रहता। इसमें सारे सांसारिक संबंध खत्म हो जाते हैं। 

65 वर्ष पूर्व स्वामी सत्यमित्रानंदजी गिरी को दिलवाई थी दण्ड दीक्षा

दण्ड दीक्षा कार्यक्रम में पण्डाघाट पर वरिष्ठ पं.गोपालजी शास्त्री ने स्वामी वरूणेन्द्र तीर्थ को वैदिक विधि विधान एवं मंत्रोच्चार के मध्य दण्ड दीक्षा दिलवाई। उल्लेखनीय है कि 65 वर्ष पूर्व ब्रम्हलीन स्वामी सत्यमित्रानंदजी गिरी को भी पं.गोपालजी शास्त्री ने दण्ड दीक्षा दिलवाई थी, तब स्वामी सत्यमित्रानंदजी गिरी की अवस्था 27 वर्ष थी। स्वामी सत्यमि त्रानंदजी गिरी आगे चलकर ज्योतिर्मठ अवान्तर भानपुरा पीठ के शंकराचार्य पद पर अभिषिक्त हुए थे।